चोटी की पकड़–105
चौंतीस
कहार से बातें मालूम करके, इनाम देकर, मुन्ना पिछली तरफवाले घाट पर चलकर बैठी।
मन में खलबली थी। बुआ का पता नहीं चला। जल्द कोई कार्रवाई होगी, दिल कह रहा था।
धड़कन त्यों-त्यों बढ़ रही थी। बचाव की सूरत नजर आती थी और कुछ देर बाद मिट जाती थी। मुन्ना ने देखा, किरनों में कई हाथ पानी के नीचे मछलियाँ दिख रही हैं।
फिर देखा, पास की डालवाले पत्तों की रेखाएँ गिनी जाती हैं। दूसरी तरफ आँख उठाई, घने बगीचे में छिपते लायक अँधेरा नहीं। सब कुछ खल गया है। अपने भविष्य पर डरी।
इसी समय देखा, जीने का दरवाजा खुला, एक युवक निकला, जीना बंद किया और घाट की तरफ चला।
उसकी शांति में घबराहट नहीं बड़ी दृढ़ता है। एक ऐसा संकल्प है जो आप पूरा हो चुका है।
जवानी की वह चपलता नहीं जो औरत को डिगा देती है, बल्कि वह जो साथ लेकर ऊपर चढ़ जाती है, और जहाँ तक औरत की ताकत है वहाँ तक चढ़ाकर अपने पैरों खड़ा करके, और चढ़ जाती है।
चरित्र के पतन से बचकर और भले कामों की तरफ रुख फेरती है। मुन्ना को जान पड़ा, उसका हृदय खुल गया। वह निर्दोष है। यह युवक उसको इस अवस्था में सदा रख सकता है। दिल की बातें उससे कह देने के लिए उतावली हो गई।
जैसे-जैसे प्रभाकर पास आता गया, मुन्ना के बुरे कृत्य भी जो नीची तह के किए हुए थे-उसके ऊँचा उठने के कारण छूटे हुए भी, काई की तरह सिमटकर पास आते गए।
प्रभाकर की चाल के धक्के से निकलते गए। मुन्ना जैसे बदल गई प्रभाकर से मिलने के लिए। जो मुन्ना होगी उसके बुरे संस्कार छूटने लगे।
वह अपने स्वरूप में आई। अभी तक प्रभाकर की नजर नहीं पड़ी। अपने काम की बातें सोच रहा था।
हवा चल रही थी। पेड़ों की पत्तियाँ और डालें हिल रही थीं। चिड़ियाँ उड़ रही थीं। सरोवर पर लहरें उठ रही थीं। उन पर किरनें चमक रही थीं।
प्रभाकर आया। बायीं तरफ एक औरत की छाँह देखी। उसने घाट के फ़र्श पर सिर टेककर प्रणाम किया। प्रभाकर ने विचारशील आँखें उठाकर देखा। पूछा, "कौन हो?"